मंगलवार, 10 जनवरी 2012

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

Balaji


बुधवार, 24 मार्च 2010

युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष

युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष
नया साल-विक्रमी संवत 2067

पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण व अंग्रेजियत के बढते प्रभाव के बावजूद भी आज चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो या जन्म कीे, नामकरण की बात हो या शादी की, गृह प्रवेश की हो या व्यापार प्रारम्भ करने कीे, सभी में हम एक कुशल पण्डित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बडे़ राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इन्तजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है। भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम यदि शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया जाये तो उसकी सफलता में चार चान्द लग जाते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति श्रेश्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हशZ व उल्लास जगाते हुए एक सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राश्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वशZ प्रारम्भ होता है। आइये इस दिन की महानता के प्रसंगों को देखते हैं :-

ऐतिहासिक महत्व:

1) सृष्टि रचना का पहला दिन : आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वशZ पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना इसी दिन की थी।
2) प्रभु राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद राज्याभिषेक के लिये चुना।
3) नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।
4) गुरू अंगददेव जी का प्रकटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्मदिवस।
5) आर्य समाज स्थापना दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।
6) सन्त झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार सन्त झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए।
7) डा0 हैडगेबार जन्म दिवस : राश्ट्रीय स्वयं सेवक संध के संस्थापक डा0 केशव राव बलीराम हैडगेबार का जन्मदिवस।
8) शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भान्ति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
9) युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष पूर्व युधििष्ठर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ।

प्राकृतिक महत्व: पतझड की समाप्ति के बाद वसन्त ऋतु का आरम्भ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। शरद ऋतु के प्रस्थान व ग्रीश्म के आगमन से पूर्व वसन्त अपने चरम पर होता है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।

आघ्याित्मक महत्व :

हमारे ऋशि-मुनियों ने इस दिन के आध्याित्मक महत्व के कारण ही वशZ प्रतिपदा से ही नौ दिन तक शुद्ध-साित्वक जीवन जीकर शक्ति की आराधना तथा निर्धन व दीन दुखियों की सेवा हेतु हमें प्रेरित किया। प्रात: काल यज्ञ, दिन में विविध प्रकार के भण्डारे कर भूखों को भोजन तथा सायं-रात्रि शक्ति की उपासना का विधान है। असंख्य भक्तजन तो पूरे नौ दिन तक बिना कोई अन्न ग्रहण कर वशZभर के लिए एक असीम शक्ति का संचय करते हैं। अष्टमी या नवमीं के दिन मां दुगाZ के रूप नौ कन्याओं व एक लांगुरा (किशोर) का पूजन कर आदर पूर्वक भोजन करा दक्षिणा दी जाती है।

वैज्ञानिक महत्व :
विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसमें खगोलीय पिण्डों की गति को आधार बनाया गया है। हमारे मनीशियों ने पूरे भचक्र अर्थात 360 डिग्री को 12 बराबर भागों में बांटा जिसे रााशि कहा गया। प्रत्येक राशि तीस डिग्री की होती है जिनमें पहली का नाम मेष है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। पूरे भचक्र को 27 नक्षत्रों में बांटा गया। एक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 4 चरणों में बांटा गया है जिसका एक चरण 3 डिग्री 20 मिनिट का होता है। जन्म के समय जो राशि पूर्व दिशा में होती है उसे लग्न कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर विश्व की प्राचीनतम कालगणना की स्थापना हुई।
एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैंं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वशZ बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राश्ट्रो के ईसाई होने और अग्रेंजों के वि“वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे वि“व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों केे माने गये आखिर क्या आधार है इस काल गणना कार्षोर्षो यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।
ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वशोंZ के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वशZ, रोम की 2756 वशZ यहूदी 5767 वशZ, मिश्र की 28670 वशZ, पारसी 189974 वशZ तथा चीन की 96002304 वशZ पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिश के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 108 वशZ है। हमारे प्रचीन ग्रन्थों में एक-एक पल की गणना की गई है।
जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धान्त व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पन्थ निरपेक्ष होने के साथ सृिश्ट की रचना व राश्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रन्थ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मन्त्र क्रमांक क्रमश: 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके र्षोर्षो

कैसे मनाऐं नया साल:
नव वशZ की पूर्व संध्या पर दीप दान करें। घरों में सायंकाल 7 बजे घंटा घडियाल व शंख बजा कर मंगल ध्वनि करके इसका जोरदार स्वागत करें। भवनों व व्यावसायिक स्थलों पर भगवा पताका फहराऐं तथा द्वारों पर विक्रमी संवत 2067 की शुभ कामना सूचक वाक्य लिखें। होर्डिंग, बैनरों, बधाई पत्रों, ई-मेल व एस एम एस के द्वारा नव वशZ की बधाई व शुभ कामनाऐं प्रेषित करें। नव वशZ की प्रात: सूर्योदय से पूर्व उठकर मंगलाचरण कर सूर्य देव को प्रणाम करें, प्रभात फेरियां निकालें, हवन करें तथा एक पवित्र संकल्प लें। भारत में अनेक स्थानों पर इस दिन से नौ दिन का श्री राम महोत्सव भी मनाते हैं जिसका समापन श्री राम नवमी के दिन होता है।
तो, आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनाऐं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।

मंगलवार, 10 नवंबर 2009

शरीर पर तिल होने का फल

शरीर पर तिल होने का फल
माथे पर---------बलवान हो
ठुड्डी पर--------स्त्री से प्रेम न रहे
दोनों बांहों के बीच--यात्रा होती रहे
दाहिनी आंख पर----स्त्री से प्रेम
बायीं आंख पर-----स्त्री से कलह रहे
दाहिनी गाल पर-----धनवान हो
बायीं गाल पर------खर्च बढता जाए
होंठ पर----------विषय-वासना में रत रहे
कान पर----------अल्पायु हो
गर्दन पर----------आराम मिले
दाहिनी भुजा पर-----मान-प्रतिष्ठा मिले
बायीं भुजा पर------झगडालू होना
नाक पर----------यात्रा होती रहे
दाहिनी छाती पर-----स्त्री से प्रेम रहे
बायीं छाती पर------स्त्री से झगडा होना
कमर में-----------आयु परेशानी से गुजरे
दोनों छाती के बीच----जीवन सुखी रहे
पेट पर----------उत्तम भोजन का इच्छुक
पीठ पर---------प्राय: यात्रा में रहा करे
दाहिने हथेली पर------बलवान हो
बायीं हथेली पर------खूब खर्च करे
दाहिने हाथ की पीठ पर--धनवान हो
बाएं हाथ की पीठ पर---कम खर्च करे
दाहिने पैर में---------बुद्धिमान हो
बाएं पैर में----------खर्च अधिक हो

रविवार, 18 अक्तूबर 2009

भारतीय ज्योतिष

भारतीय ज्योतिष एक प्रमुख वेदांग है। प्राचीन काल में यहाँ के ऋषि-मुनि इसी विज्ञान के आधार पर भविष्य दर्शन कर अपने जीवन को दैदीप्यमान बना लेते थे। जन्म कुण्डली के अध्ययन के लिए आज भी ‘भृगु संहिता’ एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है जिससे भूत, भविष्य और वर्तमान के साथ-साथ पूर्वजन्मों की भी जानकारी प्राप्त की जा सकती है। ज्योतिष जटिल विषय तो है ही इसका ज्ञान श्रमसाध्य भी है। इसी कारण हमने जटिलताओं को छोड़ते हुए सरलतम ढंग से इस विषय को समझाने का प्रयत्न किया है जिससे साधारण पढ़ा-लिखा पाठक भी इसकी इतनी जानकारी अर्जित कर सके कि वह अपने भविष्य में तो झाँक ही सके अपने परिवार एवं आस-पड़ोस का भी भविष्य जान सके और अपने विपरीत समय को अनुकूल बना सके। दरअसल सभी विपत्तियाँ हमारे ही कर्म-दोष के कारण आती हैं। ज्योतिष की सामान्य जानाकारी हो जाने पर हम शूली जैसे बड़े कर्म-दोष को काँटा चुभने जैसा हल्का और प्रभावहीन बना सकते हैं और एक सफल, आदर्श एवं प्रभावी जीवन जी सकते हैं। ज्योतिष एक विज्ञान है। भारत में और विदेशों में भी इस विषय पर निरन्तर शोधकार्य चल रहा है। अब तो ज्योतिष की पत्रिकायें भी अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषा में निकलने लगी हैं। कदाचित ही कोई समाचार-पत्र ऐसा हो जिसमें दैनिक ग्रह-गति एवं राशिफल न छपता हो। यह प्रवृत्ति इस विषय की लोकप्रियता ही दर्शाती है। छोटे से बड़े प्रत्येक वर्ग के पाठकों में ज्योतिष ज्ञान की बड़ी ललक है किन्तु मार्गदर्शन के अभाव में वह इस ज्ञान से वंचित रह जाता है। इस पुस्तक में इस अभाव की पूर्ति का यथाशक्ति प्रयास किया गया है। आशा है इससे पाठकों की जिज्ञासा शान्त होगी और वे अपने कार्य-व्यापार, शिक्षा-प्रतियोगिता एवं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसके आलोक से उन्नति के मार्ग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। इस दायित्व को लेकर लोक-मंगल के इस सारस्वत-यज्ञ में अपनी आहुतियाँ समर्पित की हैं। पाण्डुलिपि तैयार करने में निशीथ वत्स ने बड़ी सहायता की है।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी

तदनंतर में जैसे जैसे ज्योतिष पर व्यावसायिकता हावी होने लगी इसका रूप एवं अर्थ विवादास्पद होते गया । पहले ज्योतिष ज्ञान का आधार था फिर धन का आधार बन गया । धनलोलुपता की यही गंदी मानसिकता नें ज्योतिषियों के साथ साथ इस ज्ञान को भी विवादित बना दिया । इसके र्निविवादित होने के भी कई उदाहरण हैं मुझे ऐसे कई व्यक्तियों के संबंध में जानकारी है जो बिना अर्थलोलुपता के नि:स्वार्थ भाव से जानकारी में आये बच्चों की कुण्डली -जन्म पत्री बिना अभिभावक या जातक के अनुरोध के बनाते थे और उसमें अपनी टीका टिप्पणी स्वांत: सुखाय करते थे एवं अभिभवक या जातक के मांगने पर बिना दक्षिणा के उन्हे प्रदान कर देते थे । आज इस छोटे से कार्य की दक्षिणा नही मूल्य कहिए कितना है । आप स्वयं देख सकते हैं, जन्म पत्री का मूल्य बनाने वाले की लोकप्रियता के ग्राफ के अनुसार तय होता है । जबकि कुण्डलीगत गणित की गणना के आधार में कुछ विशेष सिद्धांतों को गौड समझा जाए तो, कोई अंतर नही होता । वही कुण्डली मुफत में उपलब्ध साफटवेयरों के आधार पर अक्षांस देशान्तर व समय संस्कार के उचित प्रवृष्टि के बाद आप मुफत में पा सकते हैं जो तथाकथित ज्योतिष हजारों रूपयों में पंदान करते हैं ।ज्योतिष की व्यावसायिकता में वृद्धि का एक कारण और रहा है जिसका संबंध मानसिकता से है । दशानुसार व गोचरवश ग्रहों के भ्रमण का व्यक्ति के जीवन पर पडने वाले कुप्रभावों का इस प्रकार विश्लेषण कि जातक भय के वशीभूत होकर नग व नगीनों के पीछे भगता है या तो पूजा अनुष्ठान हेतु उदघत होता है । इन दोनों कार्यों से ज्योतिषी को भय सं धनउपार्जन का सरल राह मिल जाता है । गणना की तृटि, नगो की अशुद्धता या पूजा अनुष्ठान में पंडितों की स्वार्थता और ८० प्रतिशत उस जातक की इच्दाशक्ति में कमी के कारण असफलता, हानि, अपयश मिलने लगाता है जो जीवन का सामान्य क्रम है तब जातक आलोचना करने लगता है और ज्योतिष फिर बदनाम होता है ।परिस्थितियों के प्रति भय दिखाना पंडितों का वैदिक काल के बाद धन व वैभव प्राप्ति का साधन रहा है पाराशर होरा शास्त्र का एक उदाहरण देखिये -यो नरः शास्त्रमज्ञात्वा ज्योतिषं खलु निन्दति ।रौरवं नरकं भुक्त्वा चान्धत्वं चान्यजन्मनि ।।(जो मनुष्य ईस शास्त्र को न जानते हुए ज्योतिषशास्त्र की निंदा करता है, वह रौरव नरक को भोग कर दूसरे जनम में अंधा होता है ।।)इसी क्रम में समय समय पर नये नये भयंकर योग प्रकट हुए थोथे परंपरायें विकसित की गयी जो वैदिक ग्रंथों में भी नही थे । शायद इसीलिए ज्योतिष एक विवादास्पद विषय हो गया ।